निम्बार्क
NIMBARKACHARYA
SALEMABAD, RAJASTHAN
वैष्णव समाज के जगद्गुरू सनकादि सम्प्रदाय के प्रचारक श्री सुदर्षनावतार श्री निम्बार्काचार्य का जन्म आन्ध्र प्रदेष के पण्डरपुर नामक तीर्थस्थल में विक्रम संवत् 1114 में हुआ था, सलीमाबाद के श्री श्री जी के अनुसार श्री निम्बार्काचार्य का प्रादुभार्व विक्रम की 11 वी शताब्दी से बहुत बहुत पूर्व हुआ था इनके पिता श्री अरूण मुनी जी भृगुवंषीय तैलंग ब्राह्मण थे, माता का नाम श्रीमती जयन्ती देवी था आपके जन्म का नाम नियमानन्द था (वैष्णव धर्म लेखक परषुराम चतुर्वेदी)
सुदर्षनावतार - भगवान श्री कृष्ण के आदेषानुसार, श्री सुदर्षन चक्र ने ही इस भूतल पर विष्णु भक्ति का प्रचार प्रसार करने के लिए निम्बार्काचार्य के रूप में जन्म लिया था, इसलिए ठनतें सुदर्षनावतार भी कहते है
षिक्षा दीक्षा- आपके गुरू नारदजी थे, जिन्होंने इनकंे गोपाल मंत्र की दीक्षा दी थी तथा तत्वज्ञान का बोध कराया था तथा राधा कृष्ण की भक्ति का प्रचार करने को कहा । ब्रह्माजी के पुत्र सनकादि ऋषि के सिद्वान्त व उपासना पद्वति व ब्रह्म विद्या का उपदेष श्री नारदजी द्वारा आचार्य को प्राप्त हुए थे और आचार्य ने इन्हीं सिद्वान्तों का जीवन भर प्रचार किया इसलिए इनके द्वारा चलाए गए धर्म प्रचार को ‘‘सनक सम्प्रदाय‘‘ भी कहते है और यही सनाकादि सम्प्रदाय कालान्तर में आगे चल कर ‘‘निम्बार्क सम्प्रदाय‘‘ नाम से विख्यात हो गया ।
निम्बार्काचार्य का नाम- एक बार आपके आश्रम में एक दण्डी स्वामी पधारे, उनके साथ शास्त्र चर्चा करते करते भोजन में विलम्ब हो गया, सूर्यास्त हो जाने से दण्डी स्चामी ने भोजन करने से मना कर दिया । आश्रम में पधारे अतिथि का भूखा सो जाना, आचार्य को उचित नहीं लगा । इन्होंने अपने तेजबल से सुदर्षन चक्र का आव्हान किया, तब आंगन में खडे नीम वृक्ष पर सुर्दषन सूर्यवत प्रकट हुए और नीम वृक्ष के नीचे चारों ओर सूर्य का प्रकाष छा गया, दण्डी स्वामी ने सूर्य नमस्कार कर भोजन ग्रहण किया । इसके बाद सहसा रात्रि हो गई । आचार्य के इसी तपोबल द्वारा नीमबृक्ष पर सूर्च के दर्षन कराने से आपका नाम निम्बार्क/निम्बादित्य प्रसिद्व हो गया ।
सिद्वान्त - गोवरधन के पास निम्ब गांव में आपकी तपोभूमि रही, यहीं से आपने आपना मत ‘‘द्वैताद्वेत‘‘ सिद्वान्त व श्री राधाकृष्ण की युगल उपासना का प्रचार प्रसार किया । इनके अनुसार सममत जगत ब्रह्म का अंष होने के सम्य है, जीव और प्रकृति व सम्पूर्ण विष्व, ब्रह्म से भिन्न है किन्तु उसका अंष एवं शक्ति होने के कारण संभव अभिन्न भी है ।
ग्रन्थ- आपने अपने जीवनकाल में कई ग्रन्थों की रचना की थी, उनमें से कई ग्रन्थ ‘‘प्रपति चिन्तामणी‘‘, सदाचार प्रकाष, गीताभाष्य, उपनिषद भाष्य, उपलब्ध नहीं है, क्योंकि ये ग्रन्थ मथुरा में यवनों में उपद्रव से नष्ट हो गए । इनके अतिरिक्त आपने वेदान्त कामधेनु रहस्य षोडषी, प्रपन्न कल्पवल्ली, प्रातः स्तवराज वेदान्त परिजात सौरभ, गीता वाक्य आदि की रचना की थी, जिनसे आपकी उपासना, सिद्वान्त आदि के संकेत मिलते है ।
षिष्य व आचार्य परम्परा आपके केषवभट्ट व हरिव्यास मुख्य षिष्य थे इनके विरक्त व गृहस्थ दोनो प्रकार के षिष्य थे, केषवभट्ट ने विक्त श्रेली व हरिव्यास ने गृहस्थ श्रेली चलाई । अन्य षिष्य आचार्य श्री निवास, यादव प्रकाष्या, श्री पुरूषोत्तमाचार्य, देवाचार्य, केष्वाचार्य, विष्वनाथ चक्रवती हुए । इस सम्प्रदाय के लोग अपने-अपने ललाट पर दो रेखाऐं गोपीचन्दन की खींचते है व बीच में काले रंग का टीका लगाते है ।
प्रधान पीठ व द्वारे- आचार्य ने यमुना किनारे ध्रुव क्षेत्र में मुख्य मंदिर बनवाया तथा प्रदान गादी अजमेर के पास सलीमाबाद में है जंां वर्तमान में जगद् गुरू निम्बार्काचार्य पीठाधीष्वर श्री श्री जी राधासर्वेष्वर शरण देवाचार्य जी महाराज विराजते है । इस सम्प्रदाय के गृहस्थ समुदाय ज्यादातर राजस्थान, गुजरात, पंजाब, हरियाणा, मध्यप्रदेष व बंगाल, गोवा में बहुतायत में रहते है। इस सम्प्रदाय के प्रचार प्रसार करने के लिए भारत में बारह (12) द्वारे निम्न स्थानों पर स्थापित है ।
निम्बार्क (निम्बावत) |
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क्र.सं. |
द्वारा गौत्र |
द्वाराचार्य |
गुरूदेव का नाम |
ऋषि गौत्र |
द्वारा पीठ स्थान |
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1. |
केशवव्याणी |
श्री केशवदेवाचार्य |
श्री हरिव्यासदेवाचार्य |
कौडिन्य |
खुडाला- पंजाब |
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2. |
घमंडी |
श्री उद्धवघमंडदेवाचार्य |
श्री हरिव्यासदेवाचार्य |
अघमर्षण |
लीखी- उ.प्र. |
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3. |
चित्रानागा |
श्री चतुरचिन्तामणिदेवाचार्य |
श्री परमानन्ददेवाचार्य |
चन्द्रात्रैय |
वृन्दावन-विहाबर घाट, उ.प्र. |
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4. |
चर्तुभुजी |
श्री चर्तुभुजदेवाचार्य |
श्री टीकमदेवाचार्य |
च्यवन |
अजमेर-राजस्थान |
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5. |
तत्ववेदी |
श्री टीकमदेवाचार्य |
श्री परशुरामदेवाचार्य |
शौनक |
जैतारण- पाली, राज. |
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6. |
परशुरामी |
श्री परषुरामदेवाचार्य |
श्री हरिव्यासदेवाचार्य |
हारीत |
सलेमाबाद, अजमेर- राज. |
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7. |
मधवकाणी |
श्री माधवदेवाचार्य |
श्री हरिव्यासदेवाचार्य |
यज्ञवाह |
खानपुर कलां -जगाधरी, हरियाणा |
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8. |
राधावल्लभी |
श्री हितहरिवंषदेवाचार्य |
श्री राधिका |
वमदेव |
वुन्दावन उ.प्र. |
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9. |
लपरागोपाली |
श्री लपरागोपालदेवाचार्य |
श्री हरिव्यासदेवाचार्य |
इन्द्रकौषिक |
दुल्हैड़ा-हरियाणा |
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10. |
वीरमत्यागी |
श्री वीरमत्यागीदेवाचार्य |
श्री भट्टदेवाचार्य |
जातुकर्ण |
किशनगंज, कोटा-राज. |
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11. |
शोभावत |
श्री स्वंभूरामदेवाचार्य |
श्री हरिव्यासदेवाचार्य |
शोभरी |
बुडयाबनी -जगाधरी, हरियाणा |
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12. |
ऋषिकेेषवी |
श्री ऋषिकेषदेवाचार्य |
श्री हरिव्यासदेवाचार्य |
धनंजय |
किरोड़ी कुंड, जयपुर राज. |
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राज मारवाड़ द्वारा प्रकाषित ‘‘मारवाड़ की कौमो का इतिहास‘‘ सम्वत् 1816 में लिखा है कि नीमावत सम्प्रदाय की हथियार बन्द जमात जयपुर के पास नीम के थाने में रहती थी ।
वैष्णव धर्म का प्रचार प्रसाद करते आचार्य श्री का गोलोकवास गमन 12वी शताब्दी में हुआ (कल्याण योग अंक)